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राजभाषा हिन्दी में वैज्ञानिक साहित्य के अनुवाद की दिशाएं

हरिमोहन

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6842
आईएसबीएन :81-7965-093-6

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तकनीकी और विज्ञान-विषयक साहित्य को हिन्दी में अनूदित करने की आवश्यकता और समस्याओं को लेकर लिखी गई पुस्तक...

Rajbhasha Hindi Mein Vaigyanik Sahitya Ke Anuvad Ki Dishayen - A Hindi Book - by Harimohan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पुस्तक परिचय


अनुवाद के कई स्वरूप और दिशाएं हैं। साहित्य में काव्य, नाटक, ऑपेरा, आदि के अनुवाद की अपनी-अपनी विधि और समस्याएं हैं। वैज्ञानिक अनुवाद की समस्या इससे भी कठिन और चिनौतीपूर्ण है। आज राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित होने के लिए हिन्दी के लिए पर्याप्त विज्ञान सम्बन्धी साहित्य अपेक्षित है। अधिकांश तकनीकी और विज्ञान-विषयक साहित्य दूसरी भाषाओं, विशेषतः अंग्रेजी में छपता है। उसको हिन्दी में अनूदित करने की आवश्यकता और समस्याओं को लेकर लिखी गई डॉ. हरिमोहन की यह पुस्तक अपने ढंग का अकेला प्रयास है।

प्रकाशक

अनुवाक्


अनुवाद ज्ञान-विज्ञान के अर्जन और अन्य भाषा-भाषी मानव-समुदाय के मध्य संवाद का एकमात्र माध्यम है। विश्व-परिचय के साधन के साथ-साथ यह अपनी अस्मिता को पहचानने का भी साधन है। आधुनिक युग में तो अनुवाद की आवश्यकता निरन्तर बढ़ी है। निरन्तर निकट आते देशों के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान, वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार आदि के सन्दर्भ में अनुवाद-कार्य का अनिवार्यता सर्वविदित और सर्वस्वीकृत है।
अनुवाद क्या है, अनुवाद की प्रक्रिया, अनुवाद की समस्याएं, इत्यादि ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिन पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। हिन्दी भाषा में अनुवाद की स्थिति अपेक्षया कम सन्तोषनक है। राजभाषा के रूप में हिन्दी को पतिष्ठित देखकर सभी को प्रसन्नता होना स्वाभाविक है। किन्तु हमारा यह भी उत्तरदायित्व है कि अन्य सभी क्षेत्रों के साथ-साथ विशेष रूप से वैज्ञानिक साहित्य की सम्पदा अपनी इस राजभाषा में बढ़ाएं। अच्छे और आदर्श अनुवाद उपलब्ध हों, मौलिक वैज्ञानिक साहित्य को प्रचुर मात्रा में लिखा जाये और इस महत् कार्य के लिए वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण हो।

ऐसा नहीं है कि इस दिशा में प्रयास न हुए हों. या किसी का ध्यान इधर न गया हो। फिर भी यह माँग बराबर बनी हुई है कि हम अनुवाद और अनुवाद की प्रक्रिया को समझें, समस्याओं से मुँह न चुराकर उनको ठीक से जानें और हम अच्छे अनुवाद कार्य से जुड़े रहें।
प्रस्तुत संक्षिप्त पुस्तक में इसी आवश्यकता के पक्षों पर विचार-विमर्श है।
इस पुस्तक को तैयार करने में मुझे जिन विद्वान मित्रों का प्रयत्क्ष और परोक्ष सहयोग मिला है, उनके प्रति मैं आभारी हूं।
मैं तक्षशिला प्रकाशन के स्वात्वाधिकारी श्री तेजसिंह बिष्ट का विशेष आभारी हूँ, जिन्होंने ‘कम्प्यूटर और हिन्दी’ नामक किताब लिखने के लिए प्रेरित किया, उसे प्रकाशित किया और इस पुस्तक को भी उत्साह तथा रुचिपूर्वक मुद्रित किया।

-हरिमोहन

1
हिन्दी की संवैधानिक स्थिति
1.0 पृष्ठ भूमि


भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।

सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार ‘‘भाषा या दृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परम्परा विचारों का आदान-प्रदान करता है।’’1 स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है-(1)भाषा एक पद्धति है, यानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं। (2) भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं। (3) भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं। (4) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है। ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार

A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group co-operates.
- Outlines of linguistic analysis ,b. Block and
G.L. Trager, page 5.
 उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।
हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं।’’
समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। और जैसा कि हमने पहले कहा, भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक ‘प्रतीक-स्थिति’ है। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति-एक वह जो संबोधित करता है, दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी संकेतित वस्तु और चौथी-प्रतीकात्मक संवाहक जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है।
विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी उच्चापण-प्रक्रिया, शब्द-भंडार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं।
1.1    बोली, विभाषा और भाषा
इस आधार पर वैयक्तिक विविधता के चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं।
(1) बोली,
(2) विभाषा, और
(3) भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा)

बोली भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल से रहता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोली की रहती है और देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की ही भाषा है। अतः इसमें साहित्यिक रचनाओं का प्रायः अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें असाधुता होती है।
विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर कई बेलियां प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएं मिल सकती हैं।
भाषा, अथवा कहें परिनिष्ठित भाषा या आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है। प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव,
साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है।
यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें मुख्यतया अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है।

1.2    हिन्दी भाषा
हिन्दी एक सुविकसित परिनिष्ठित भाषा है। इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है और इसके बोलने वालों की संख्या बहुत अधिक है। (1971 की जनगणना के अनुसार भारतवर्ष में 20,85 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है।) इसका अपना परिनिष्ठित व्याकरण है, जिसके द्वारा यह अनुशासित और नियंत्रित रहती है। इसमें उच्च स्तर का वैविध्यपूर्ण साहितय प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसमें अनेक बोलियां और समृद्ध विभाषाएं हैं। उपबोलियों का यह समूह हिन्दी भाषा की ताकत है। सम्पप्रति हिन्दी भाषा का जो मानक रूप मिलता है, वह उसकी प्रधान विभाषा खड़ी बोली का विकसित रूप है।
भारतीय स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी के इसी रूप को संविधान में राजभाषा का पद दिया गया तथा वर्तमान राजभाषा-नीति के अन्तर्गत शासकीय कामकाज के लिए हिन्दी के अधिकाधिक प्रयोग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
हिन्दी को यह सम्मान कृपापूर्वक नहीं दिया गया, बल्कि यह उसका अधिकार है। यहां अधिक विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है, केवल राष्ट्रपिता महात्मागांधी द्वारा बताये गये निम्नलिखित लक्षणों पर दृष्टि डाल लेना ही पर्याप्त रहेगा, जो उन्होंने एक ‘राष्ट्रीय भाषा’ (राष्ट्रीय भाषा से अभिप्राय राजभाषा से ही है) के लिए बताये थे देखेः
(1)    अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
(2)    उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
(3)    यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
(4)    राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
(5)    उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्प स्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए।
(6)    इन लक्षणों पर हिन्दी भाषा बिल्कुल खरी उतरती है। यदि इसके बोलने वालों की संख्या का तुलनात्मक विवरण देखना चाहे तो निम्न तालिका से देख सकते हैः
भाषा              बोलने वालों की संख्या (करोड़ों में)
बंगाली            4.48
तेलुगु             4.47
मराठी             4.18
तमिल             4.77
ऊर्दू                  2.86
गुजराती               2.59
मलयालम             2.19
कन्नड़                2.17
उड़िया                1.99
पंजाबी                1.41
कश्मीरी               0.25
सिन्धी                0.16
संस्कृत                दो हजार
हिन्दी                 20.85
(1951 की जनगणना के आधार पर)
यदि उर्दू को हिन्दी की ही एक शैली मानकर उर्दू-भाषियों को हिन्दी के साथ जोड़ ले तो हिन्दी मातृभाषियों की संख्या 23.21 करोड़ होगी, जो देश की संपूर्ण जनसंख्या (54.18 करोड़) के लगभग आधे के बराबर है। यह संख्या तो केवल हिन्दी मातृभाषियों की है, उसके बोलने-समझने वालों की संख्या तो इससे कहीं अधिक है।
1.3    राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा
किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अंतर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोली और समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है।
भारतीय संविधान में 22 राज्यों और 6 केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त 14 अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं।
राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राज्यभाषा घोषित कर सकती हैं।

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